एन डी तिवारी को उनके जन्म और मृत्यु पर एकसाथ याद किया जाना एक संयोग ही है, 18 अक्तूबर को जन्मे ओर देहांत भी 18 अक्टूबर को ही हुआ

उत्तरप्रदेश में 3 बार सीएम और उत्तराखण्ड के पूर्व मुख्यमंत्री नारायण दत्त तिवारी 93 वर्ष की उम्र में सबको अलविदा कह गए थे।
ये एक संयोग ही था कि 18 अक्तूबर 1925 को जन्मे एनडी तिवारी का देहांत भी उनके जन्मदिवस 18 अक्टूबर 2018 पर ही हुआ। 18 उनके जन्म और मृत्यु की तारीख दोनों में महत्वपूर्ण रहा।
आज इस मौके पर उनके जीवन काल की चर्चा करते हैं उनके जैसा सीएम शायद ही कभी हुआ हो।उनको स्टूडेंट्स भी सक्सेस का मंत्र मानते थे और उनकी तस्वीर को पर्स में रखा करते थे।

एनडी तिवारी का राजनीतिक कार्यकाल क़रीब पाँच दशक लंबा रहा। तिवारी के नाम एक ऐसी उपलब्धि है जिसकी मिसाल भारतीय राजनीति में शायद ही मिले।
वो दो अलग-अलग राज्यों के भी मुख्यमंत्री रहे। एनडी 1976-77, 1984-84 और 1988-89 में उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री रहे और साल 2002 से 2007 तक उत्तराखण्ड के तीसरे मुख्यमंत्री रहे।

साल 1986-87 में एनडी तिवारी राजीव गांधी की सरकार में विदेश मंत्री रहे। इसके अलावा उन्होंने केंद्र में कई और मंत्रालय भी संभाले। साल 2007-09 के दौरान वो आंध्र प्रदेश के गवर्नर भी रहे।
तिवारी ने अपना राजनीतिक सफ़र प्रजा सोशलिस्ट पार्टी से शुरू किया था, पर बाद में वो कांग्रेस से जुड़ गए. जनवरी 2017 में उन्होंने अपने बेटे रोहित शेखर के साथ भारतीय जनता पार्टी का दामन थाम लिया था।
हर मुश्किल परिस्थिति को बहुत कोमलता के साथ ‘हैंडल’ करते थे।वो चाहे अयोध्या जैसा मामला हो या उत्तर प्रदेश के दंगे हों या कितना भी कठिन मामला हो, पहले तो वो मुस्कराएंगे।
आप से कहेंगे, बैठिए, चाय पीजिए और थोड़ी देर में आपकी उत्तेजना की हवा निकल जाएगी। उनकी ‘विनिंग’ मुस्कराहट ही सभी को शांत कर दिया करती थी।
स्वाधीन भारत में उत्तर प्रदेश की पहली विधानसभा में नारायण दत्त तिवारी सबसे युवा विधायक थे। जिस समय 1952 में वो नैनीताल विधानसभा क्षेत्र से जीत कर उत्तर प्रदेश विधानसभा में पहुंचे थे, उस समय उनकी आयु मात्र 26 वर्ष थी।
जब उन्होंने सदन में अपना पहला भाषण दिया तो विपक्ष क्या, सत्ता पक्ष के लोग भी उनसे प्रभावित हुए बिना नहीं रह सके थे।नारायण दत्त तिवारी की ख़ासियत थी कि वो कभी किसी को ना नहीं कहते थे। और किसी भी काम करके ही मानते थे।
नारायण दत्त तिवारी की एक और ख़ूबी थी,कहा जाता है कि शायद उन्होंने हेमवती नंदन बहुगुणा से ये बात सीखी थी वो थी लोगों के नाम को कभी नहीं भूलना। वो चाहे क्लर्क हो या चपरासी, तिवारी उसे हमेशा सबको नाम से ही पुकारते थे।

भीड़ में भी तिवारी लोगों को नाम से बुलाकर अपनी तरफ़ आकृष्ट कर लेते थे। न सिर्फ़ नाम बल्कि उसकी पूरी पृष्ठभूमि के बारे में तिवारी बाक़ायदा शोध करते थे. मसलन वो कहाँ का रहने वाला है? उसके कितने बच्चे हैं? उसकी पत्नी क्या करती है या उसके पिता क्या करते हैं?
ये सभी बातें तिवारी के दिमाग रूपी कंप्यूटर में क़ैद रहती थीं।उनको ये पता होता था कि लोगों का दिल किस तरह से जीता जाए।
मुख्यमंत्री और केंद्रीय मंत्री रहते हुए नारायण दत्त तिवारी के बारे में ये मशहूर था कि वो रोज़ 18 घंटे काम करते थे।
चाहे वो रात को 2 बजे सोने गए हों या सुबह 4 बजे, रोज़ 6 बजे उनकी आँख खुल जाया करती थी।वो अपने लॉन में कुछ देर टहलने के बाद लोगों से मिलने के लिए तैयार हो जाते थे।
बताते हैं, यूँ तो नारायण दत्त तिवारी को बहुत कम गुस्सा आता था लेकिन वो किसी से नाराज़ हैं, इस बात की पहचान इस बात से होती थी कि वो उसे महाराज और भाई साहब या भगवन कहकर संबोधित करने लगते थे।

वो उन चंद चीफ़ मिनिस्टर्स में से थे जो फ़ाइल का एक-एक लफ़्ज़ पढ़ते थे उसको अंडरलाइन करते थे। फ़ाइल पर लाल निशान सेक्शन अफ़सर के नहीं होते थे,वो ख़ुद फ़ाइल पर लाल निशान लगाया करते थे। इसलिए अफ़सरों के बीच में उनकी काफ़ी हड़क और डर था। माना जाता था कि नारायण दत्त तिवारी को बेवकूफ़ बनाना आसान नहीं है।
कहा जाता है कि अगर नारायण दत्त तिवारी ने 1991 में संसदीय चुनाव जीत लिया होता तो राजीव गांधी की हत्या के बाद नरसिम्हा राव की जगह वो भारत के प्रधानमंत्री होते. लेकिन ऐसा नहीं हुआ।
वो सिर्फ़ 5000 वोटों से चुनाव हार गए. नरसिम्हा राव ने चुनाव तक नहीं लड़ा, तब भी वो भारत के प्रधानमंत्री बन गए.
वो एक विजन वाले शख़्स कहलाते थे , आज के युग में इस तरह के नेता बहुत मुश्किल से मिलते हैं.”अगर वो प्रधानमंत्री होते तो कोई बहुत बड़ी बात नहीं थी।

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