संयुक्त नागरिक संगठन उत्तराखण्ड ने किया विश्व वन दिवस पर वीडियो कांफ्रेंसिंग माध्यम से वनों को बचाने पर चर्चा

देहरादून

विश्व वन दिवस पर संयुक्त नागरिक संगठन द्वारा वीडियो कांफ्रेंसिंग के माध्यम से वनों को लगाने व बचाने के साथ उनके सरंक्षण पर सार्थक चर्चा कर सभी से सुझाव मांगे। अध्यक्ष ब्रिगेडियर के० जी० बहल एवं सचिव सुशील त्यागी ने कहा कि संयुक्त नागरिक संगठन राष्ट्र व समाज के प्रति अपनी जिम्मेदारी को निभाने हेतु प्रत्येक विषय पर समय समय पर कार्यशाला आयोजित करता है। आज वन दिवस पर सभी सुझाव को संकलन कर एक प्रपत्र के माध्यम से सरकार को प्रेषित किया जायेगा।

इस अवसर पर सामाजिक कार्यकर्ता तारा चन्द गुप्ता के अनुसार वन पर समग्रता से विचार होना चाहिए, यहां सारे विचार चीड़ पर आकर रुक गए हैं, सबसे पहले जंगल में फलदार पेड़, वोह भी विभिन्न प्रजाति के लगाए जाने चाहिए ताकि जंगली जानवरों को जंगल में ही रहने का आकर्षण हो, और वे आबादी की ओर न आएं, मैंने एफआरआई में वैज्ञानिक वन प्रबंधन पर प्रेजेंटेशन देखा था परंतु वह व्यवहार में क्यों नहीं है पता नहीं, यदि उसके अनुसार चला जाए तो लोगों की लकड़ी की जरूरत भी पूरी होती रहेगी और वन भी सुरक्षित रहेंगे।

मैती के संस्थापक कल्याण सिंह रावत के अनुसार उत्तराखंड के परम्परागत बांज और चौड़ी पत्ती वाले प्रजातियों के पोधों का उपयोग कोयला बनाने में किया। उसके स्थान पर वे‌ आस्ट्रिया और इंग्लैंड से चीड़ के बीज लाये और उन्हें कुमाऊं और गढ़वाल के पहाड़ियों में प्रतिस्थापित किया। धीरे धीरे यहां बांज प्रजाति के वन कम होने लगे और उनके स्थान पर चीड़ वनों का विस्तार होने लगा। बताते चलें कि बांज प्रजाति को उत्तराखंड का हरा सोना कहा जाता है। यह प्रजाति सबसे ज्यादा पानी जमीन को देता है, इस की लकड़ी काष्ठीय होती है जो कृषि यंत्रों को बनाने में उपयुक्त होता है। बांज का एक स्वस्थ पचास वर्ष का पेड़ जमीन को ४८ घण्टे में चार‌ सौ गैलेन पानी जमीन को देता है। इसलिए बांज जैसे चौड़ी पत्ती वाले मिश्रित वनों के नीचे बड़े बड़े एक्यूफइयर पाते जाते हैं जो मध्य हिमालय के गैर हिमालयी नदियों के असली स्रोत हैं। बांज के बन सबसे अधिक आक्सीजन देती है तथा वायुमंडल से कार्वन को अधिक मात्रा में अवशोषित करती है। बांज के पेड़ जमीन की मिट्टी को भी मजबूती से पकड़ कर रखती है जिससे सम्बन्धित क्षेत्र में भू स्खलन बहुत कम होता है। चीड़ वनों से जो लकड़ी प्राप्त होगी उसे स्थानीय ग्रामीणों को निशुल्क व बहुत ही न्यून दामों पर उपलब्ध करा जा‌ सकेगा। जब लोगों को लकड़ी मिलने लगेगी तो लोग अपने पुराने मकानों की मरम्मत करेंगे और लेंटर के स्थान पर लकड़ी के मकान बनाएंगे। यह संवेदनशील भूकम्पीय सेस्मिक जोन टाइप -5 में स्थित उत्तराखंड के लिए लाभदायक होगा। एक हजार मीटर से ऊपर स्थित गांवों व शहरों में बनने वाले नये भवनों को लकड़ी के हल्के मकान बनाने को प्रोत्साहित किया जाना चाहिए। चीड के स्थान पर बांज तथा चौड़ी पत्ती वाले वनों को विकसित किया जाना चाहिए।

पेंशनर एसोसिएशन के अध्यक्ष ओम वीर सिंह के अनुसार चीड का पोधा जमीन से अधिक पानी सोकता है साथ ही जमीन की उरवरा शक्ति को अन्य पोधो की अपेक्षा अधिक मात्रा मे अपने अन्दर लेता है व चीड के पोधे की पतियाँ जगल मे आग लगने का कारक बनती है। चीड़ अपने आस पास अन्य किसी भी पोधे को पनपने नहीं देता है। खेती भूमि से दूर चीड के पोधो को लगाया जा सकता है। चीड के पोधो की कटिंग करतें रहना चाहिए अगर हो सके तो नये पोधो को न लगाया जाए।

राज्य आंदोलनकारी प्रदीप कुकरेती के अनुसार वनों के प्रति हमे बच्चो को स्कूली शिक्षा के साथ ही सजग करना होगा और पर्यावरण की दृष्टि के साथ ही पानी के सरंक्षण में योगदान देने वाले पौधों पर विशेष कार्य करने की आवश्यकता है।

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