पाठकों 19 अगस्त भारत माँ के लाल वीर कैप्टन जसवंत सिंह का जन्मदिन है शहीद जसवंत जैसे वीर सपूत का कर्ज़ हम कभी नही चुका पाएंगे,आइये कुछ जानकारी’शहीदों को नमन’ करते हुए शेयर करते हैं – Latest News Today, Breaking News, Uttarakhand News in Hindi

पाठकों 19 अगस्त भारत माँ के लाल वीर कैप्टन जसवंत सिंह का जन्मदिन है शहीद जसवंत जैसे वीर सपूत का कर्ज़ हम कभी नही चुका पाएंगे,आइये कुछ जानकारी’शहीदों को नमन’ करते हुए शेयर करते हैं

देहरादून

भारत माँ के गर्भ से पैदा होने वाले वैसे तो लाखों जवान हैं मगर कुछ जवान ऐसे भी हैं जो हमेशा के लिए अपनी बहादुरी के झंडे गाढ़ देते है उनमें से एक नाम भारत माँ के आँचल उत्तराखण्ड की धरती पर जन्मे वीर जसवंत सिंह रावत का भी है जिनके जैसी बहादुरी शायद आजतक इतिहास में कोई भी है जिनके जैसी बहादुरी शायद आजतक के इतिहास में कोई ही कर पाया हो। इस वीर जवान की बहादुरी पर जितने शब्द लिखें उतने कम है।
जसवंत सिंह रावत. पिता गुमान सिंह रावत की देख रेख में पले बढ़े और लीला देवी रावत की कोख से जन्मे वीर जसवंत सिंह रावत का जन्म 19 अगस्त 1941 को ग्राम. बाड्यूँ, पट्टी. खाटली, ब्लाक बारोखल, जिला पौड़ी गढ़वाल, उत्तराखण्ड में हुआ था। वीर जसवंत भक्ति की इतनी भावना थी कि वे 17 साल की छोटी उम्र में ही सेना में भर्ती होने चले गए लेकिन उम्र कम होने के कारण उन्हें सेना में भर्ती होने से रोक लिया गया और जैसें ही उनकी उम्र पूरी हुई उनको भारतीय सेना में राइफल मैन के पद पर शामिल कर लिया गया था और अपने अदम्य साहस के साथ भारत माँ का यह वीर जवान 17 नवम्बर 1962 के चीन युद्ध में वीरगति को प्राप्त हुआ।
नूरानांग (भारत-चीन युद्ध 1962)-
अपने तीसरे हमले में अरूणांचल प्रदेश के तवांग नामक स्थान से महात्मा बुद्ध की मूर्ति के हाथों को काटकर ले जाने वाले चीनी सैनिकों ने जब 17 नवम्बर 1962 को अरूणांचल प्रदेश पर कब्ज़ा करने के लिए अपना चैथा और आखिरी हमला किया तो उस वक़्त वहाँ भारतीय सेना ना तो युद्ध के लिए तैयार थी न कोई रणनीति थी और न ही ज्यादा जवान थे और न ही उनके पास कोई मशीने, गााड़ियाँ, और अन्य यंत्र सिर्फ एक रायफल थी। ‘हिन्दी चीनी भाई भाई’ उस वक्त पाकिस्तान के साथ भी हमारा समझौता चुका था और ऐसे में मेनन को लगा कि अब तो भारत पर हमला करने वाला कोई नहीं है तो फिर फौज पर पैसा खर्च करके क्या फायदा। फिर गोला बारूत बनाने वाली फैक्ट्रियाँ बर्तन बनाने लग गयीं और जब ये बात चीन को पता चली तो उसने भारत पर हमला करने की सोची और अरूणांचल प्रदेश की सीमा पर जवानोें की तैनाती नहीं थी, इसलिए चीन की सेना ने यहाँ बहुत तबाही मचाई वे महात्मा बुद्ध की मूर्ति के हाथों को काटकर ले गए। अब हालत जब काबू से बाहर हो गए तो यहाँ से गढ़वाल राइफल चतुर्थ बटालियन को वहां भेज दिया गया। और गढ़वाल राइफल की इसी बटालियन के एक वीर साहसी जवान थे जसवंत सिंह रावत।

इस हार का मुख्य कारण उस वक्त हमारे पास फौज थी न हथियार न ही कोई ठोस रणनीति, दूसरी तरफ से चीन अपनी पूरी ताकत के साथ ज़ोरो से हमला करता जा रहा था हर मोर्चे पर चीनी सैनिक हावी होेते जा रहे थे। और इस कारण भारत ने अपनी हार को स्वीकार करते हुए नूरानांग पोस्ट पर डटी गढ़वाल राइफल की चतुर्थ बटालियन को भी वापस बुलाने का आदेश दे दिया। आदेश का पालन कर पूरी बटालियन वापस लौट गई और पोस्ट पर वहां रह गए गढ़वाल राइफल के केवल तीन जवान

@ राइफलमैन जसवंत सिंह रावत
@ लांसनायक त्रिलोक सिंह नेगी
@ राइफलमैन गोपाल सिंह गुंसाई।
तत्पश्चात जसवंत सिंह ने स्वविवेक से स्वयं पोस्ट पर रहने का निर्णय लेते हुए अपने दोनों साथियों को वापिस भेज दिया और अकेले ही नूरानांग की पोस्ट को संभाल लिया। आपने अकेले ही अपनी सूझबूझ का परिचय देते हुए लगातार 72 घण्टों तक चीन के 300 दुश्मनों को मौत के घाट उतारा और कोई भी आगे नहीं बढ़ पाया। उनकी इस विशेष तकनीक का दुश्मन भी कायल हो गया हालांकि चीन की सेना को लग रहा था कि पोस्ट पर नाजाने कितने सैनिकों की बटालियन फायरिंग कर रही है। उनकी इस सोच के पीछे फायरिंग करने का थोड़ा अलग तरीका था जिसमें उन्होंने कई जगह पर अलग अलग बंदूकों से फायरिंग की, लेकिन इसी बीच रावत को वहाँ उनकी मदद और रसद पहुँचा रहीं दो बहनों शैला और नूरा को भी दुश्मनों ने मौत के घाट उतार दिया। इन दोनों बहनों की शहादत को भी कम नहीं आँका जा सकता। इन बहनों की शहादत को जीवित रखने के लिए नूरानांग में भारत की अंतिम सीमा पर दो पहाड़ियाँ हैं, जिनको नूरा और शैला के नाम से आज भी जाना जाता है। इसके बावजूद भी जसवंत सिंह दुश्मनों से लड़ते रहे, परंतु रसद लगातार न मिलने के कारण वे कमजोर पड़ते जा रहे थे, लेकिन उन्होंने जिंदा दुश्मन के हाथ न लगने का फैसला लेते हुए 17 नवंबर, 1962 को खुद गोली मार कर अपने प्राण मातृभूमि को न्यौछावर कर हमेशा के लिए अमर हो गए। अचानक फायरिंग बंद हो जाने के बाद चीनी सैनिक जब पोस्ट पर पहुँचे तो वे ये देखकर हैरान हो गए कि वो तीन दिन से एक ही सिपाही के साथ लड़ रहे थे और अपने 300 से ज्यादा सैनिकों को गवां चुके थे। चीनी सेना के अधिकारियों ने उनका सिर काटकर साथ ले जाने को कहा और सैनिक सिर अपने देश ले गए। 20 नवंबर, 1962 को युद्ध विराम की घोषणा के बाद चीनी कमाण्डर ने इस भारतीय योद्धा का न सिर्फ शीश लौटाया बल्कि जसवंत सिंह रावत की एक मूर्ति भी भेंट की।
जिस स्थान पर जसवंत सिंह ने दुश्मन के दाँत खट्टे कर हार का पाठ पढ़ाया था, उस स्थान पर जसवंत सिंह के नाम का एक मंदिर बनाकर चीन द्वारा सौंपी गयी काँसे की मूर्ति को उसमें रखा गया है। मंदिर से गुजरने वाला हर शक्स उनको शीश झुकाता है और जवान अपनी ड्यूटी पर जाने से पहले नमन करना नहीं भूलता।
ऐसी मान्यता है कि जब भी कोई जवान ड्यूटी पर सोता है तो जसवंत सिंह रावत उनको थप्पड़ मारकर जगातें हैं। इनके नाम से नूरानांग में जसवंतगढ़ नाम का स्मारक भी है, जहाँ इनकी हर चीज़ को संभाल कर रखा गया है। प्रत्येक दिन इनके कपड़ों पर इस्त्री, बूटों पर पाॅलिश किए जाने के साथ सुबह दिन और रात के भेजन की पहली थाली उनको परोसी जाती है। सेना की जो भी बटालियन उस क्षेत्र की रक्षा में तैनात होती है उसी के पास जसवंतगढ़ के इलाके की देखरेख का जिम्मा भी होता है। बताया जाता है कि जब सुबह उठकर देखा जाता है तो ऐसा लगता है कि इन कपड़ों और जूतों को पहना गया हो।
जसवंत सिंह रावत भारतीय सेना के एकमात्र ऐसे जवान है जिनको मरणोपरांत भी पदोन्नति दी जाती है। रायफलमैन जसवंत सिंह आज कैप्टन की पोस्ट पर है और उनके परिजनों को पूरी तन्ख्वाह दी जाती है। ऐसे शहीद जसवंत सिंह रावत जैसे वीरों को हम नमन करते है जिनके कारण आज हम इस देश में सुरक्षित है और चैन की नींद सो पाते है।

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